प्रियमत्स्य बंधुओं
अनुसंधान
में पाया गया है कि पांच-छह फीट की गहराई में मछलियां सबसे अधिक तेजी से बढ़ती हैं
क्योंकि सूर्य की किरणों के जल से छन-छन कर पहुंचने के कारण इस गहराई तक प्लैंक्टन
पाई जाती है। पानी के अलग-अलग स्तरों पर प्लैंक्टन की मात्रा में अंतर होता है।
ऊपरी स्तर पर सूर्य किरणों की अधिक उपलब्धता के कारण कुल प्लैंक्टन का लगभग 60 प्रतिशत होता है जबकि मध्य और निचले स्तर पर 20-20 प्रतिशत प्लैंक्टन होता है। सभी मछलियां
अलग-अलग स्तर में भोजन तलाशती हैं। कॉमन कॉर्प और कतला ऊपरी स्तर में, ग्रासकॉर्प और रेहू मध्य स्तर में और सिल्वर
कॉर्प और नैनी निचले स्तर में अधिक भोजन तलाशती हैं। तालाब के विभिन्न स्तरों के
भोज्य पदार्थों का पूरा दोहन करने के लिए कंपोजिट फिश कल्चर पर जोर दिया जाता है।
तीन देसी मछली कतला, रेहू
और नैनी और तीन विदेशी मछली कॉमन कॉर्प, ग्रास कार्प और सिल्वर कॉर्प एक साथ मिला कर
डाली जाती हैं।
चारे का उपयोग क्यों है सीमित
प्रदेश
के अधिकतर मछलीपालक तालाब में जियरा डाल देते हैं लेकिन पैसे की कमी के कारण चारा
खरीदने की स्थिति में नहीं रहते हैें। चारा नहीं डालने के कारण मछलीपालकों को बहुत
नुकसान हो रहा है। आंध्र प्रदेश में कृत्रिम चारा के बल पर 4-5 टन प्रति हेक्टेयर मछली उत्पादन होता है जबकि
बिहार में मात्र 0.8-1.0 टन
प्रति हेक्टेयर। नई तकनीक से यहां भी 4-5 टन प्रति हेक्टेयर का उत्पादन किया जा सकता है
और वह भी बिना अतिरिक्त खर्च।
किसी
भी गोबर का इस्तेमाल
मछलियों
के चारे के रूप में गाय-भैंस समेत किसी भी जानवर का गोबर इस्तेमाल किया जा सकता
है। गाय और भैंस के गोबर को सीधे तालाब में डाल दिया जाता है जबकि बकरी के मल का
चूरन बना कर उसमें डालना पड़ता है क्योंकि कड़ा होने के कारण यह पानी में जल्द
घुलता नहीं है।
मछलियों
के पानी में मिलने वाले पोषक तत्वों पर पलने की बात तो सभी जानते हैं लेकिन गोबर
पर भी मछलियां पल सकती हैं। इसे मुमकिन बनाया है इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर
रिसर्च ((आईसीएआर)) के वैज्ञानिकों ने। उनके अनुसंधान से यह साबित हो गया है कि गोबर
में मौजूद तत्व भी उसी तरह से मछलियों के ग्रोथ को बढ़ा सकता है। आईसीएआर ने गोबर
से मछलियों का देसी खाद्य पदार्थ तैयार किया है।
वीरेश त्रिपाठी
प्रतापगढ़ – उत्तर प्रदेश
८००५०७५०००